Devasthan Department, Rajasthan

     
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हिंदू परंपरा के अनुसार कुछ प्रमुख तीर्थों-धामोंकी श्रेणियाँएवं सूची

धार्मिक प्राधिकार

धार्मिक प्राधिकार (Religious Authority) से तात्पर्य है - धर्म की व्याख्या करने, धर्मस्थल पर पूजन कराने, धार्मिक कर्मकाण्डों का निष्पादन करने तथा धार्मिक आधार पर दान-सम्मान प्राप्त करने की अधिकारिता ।

धर्म उपासनापरक होता है, किन्तु यह केवल उपास्य-उपासक का संबंध नहीं है । प्रायः ईश्वर और भक्त के मध्य एक पुरोहित वर्ग विश्व की समस्त संस्कृतियों और उसके समस्त धर्मों में रहा है । उदाहरणार्थ -

धर्म

पूजास्थल

पुरोहित/ धार्मिक प्राधिकारी

हिन्दू

मंदिर

पुजारी

जैन

मंदिर, देरासर

अर्चक (जैन), यदाकदा पुजारी (ब्राह्मण)

बौद्ध

चैत्य, पैगोडा

भिक्षु (बौद्ध)

सिख

गुरुद्वारा

ग्रन्थी, जत्थेदार

यहूदी

सिनेगॉग

रब्बाई, कोहेन (लेविट)

ईसाई

चर्च

प्रीस्ट या पादरी

इस्लाम

मस्जिद

इमाम या मौलवी

पारसी

अगियारी (अग्नि मंदिर) या दर-ए-मिहर

मैगस या मोबुद

शिन्तो

याशिरो, मिया, जिंजा होकोरा, जुशी

कन्नूशी या शिंशोकु

ताओ

दाओगुआन

दाओशी, जियान

उक्त वर्गीकरण कुछ प्रमुख धर्मों का है और यह भी स्थूल निदर्शन मात्र है । कई बार पुरोहितों के नीचे भी सहायक पुरोहित या उप पुरोहित स्तरीय वर्ग होते हैं । ऐसे वर्ग और वर्गीकरण आदिम से लेकर आधुनिक धर्मों तक में सर्वत्र विद्यमान हैं ।

पुरोहित के लिए अंग्रेजी में प्रयुक्त होने वाला ‘प्रीस्ट’ (Priest) शब्द मूलतः लैटिन भाषा के ‘प्रेस्बायटर’ (Presbyter) शब्द से बना है, जिसका अर्थ है - वरिष्ठ। लैटिन भाषा में ही यह शब्द मूल ग्रीक शब्द ‘प्रेस्ब्यूटेरोस’ (Presbutero) शब्द से आया था। इन दोनों ही भाषाओं में यह शब्द धार्मिक पुरोहित के लिए प्रयुक्त नहीं होता था। इसके लिए क्रमशः ग्रीक भाषा में ‘हेयरियस’  (Hiereus) तथा लैटिन भाषा में ‘सैकरडोस’ (Sacerdos) शब्द थे। प्रथमतः यहूदी धर्म में धर्म-निर्णायकों के लिए विशेषण के रूप में प्रयुक्त हुआ था, जो बाद में ईसाई धर्म में अपना लिया गया और कालांतर में किसी भी धर्म के पुरोहित के लिए पर्यायवाची बन गया।

कतिपय विचलनों के बावजूद पुरोहितवाद अधिकांश प्रमुख धर्मों का अभिन्न अंग रहा है। इसके दोषों की तो चर्चा हम अंत में करेंगे, प्रथमतः इसके प्रमुख गुणों और मानकों का विवेचन कर लें। इसके अंतर्गत हमारे समक्ष मूलतः निम्न प्रश्न उभरते हैं -

प्रथम

-

पुरोहित का पद वंशानुगत है या चयनात्मक ? यदि यह चयनात्मक है, तो इसमें चयनकर्ता कौन हैं और चयनित होने वाले प्रत्याशी कौन हैं ?

द्वितीय

-

पुरोहित का कार्य पूर्णकालिक है या अंशकालिक ?

तृतीय

-

पुरोहित का अविवाहित होना आवश्यक है या नहीं ?

चतुर्थ

-

पुरोहित बनने के लिए स्त्रियों की पात्रता है या नहीं ?

पंचम

-

पुरोहित की अधिकारिता कितनी है ?

षष्ठ

-

पुरोहितों में भी क्या वर्गभेद और स्तरभेद विद्यमान है ?

सप्तम

-

पुरोहित के लिए क्या विशेष वेश-भूषा व विधि-विधान निर्धारित है ?

पुरोहित के लिए उसका कार्य मात्र आध्यात्मिक आचरण ही नहीं, आजीविकागत सुरक्षा भी बन जाता है। जैन, बौद्ध, ईसाई धर्मों में तथा कुछ सीमा तक हिन्दू धर्म के भी कुछ सम्प्रदायों में पुरोहित वर्ग का अविवाहित होना आवश्यक है। जैन, बौद्ध तथा हिन्दू धर्म की कुछ शाखाओं में तो गृहस्थ अर्थात् विवाहित व्यक्ति भी संन्यास लेकर धर्म पुरोहित बन सकते हैं, किन्तु ईसाई धर्म में ऐसा पूर्णतः प्रतिबंधित है। पूर्वोक्त धर्मों में भी आजीवन ब्रह्मचारी व्यक्ति को प्रायः संन्यस्त गृहस्थ की तुलना में अधिक प्रतिष्ठा और बेहतर पद का पात्र समझा जाता है। प्रथम दृष्ट्या पुरोहित पद के वंशानुगत होने का मामला केवल वहीं उत्पन्न होता है, जहाँ पुरोहित विवाहित हो सकते हों। किन्तु जहाँ अविवाहित वर्ग ही इस पद का अधिकारी होता है, वहाँ भी किसी वर्णविशेष या वर्गविशेष का आधिपत्य हो जाना स्वाभाविक है। यह अवश्य है कि विवाहित पुरोहितों की परम्परा वाले धर्मों में ऐसा जितनी सीमा तक होता है, उसकी तुलना में इनमें ये कुरीतियाँ कम होती हैं। उदाहरणार्थ यहूदी धर्म में मात्र लेवी वंश के तथा हिन्दू धर्म में मात्र ब्राह्मण वर्ण के व्यक्ति ही ये पद प्राप्त करते रहे हैं। इस्लाम में सय्यद वंश का भी खलीफा और इमाम के पदों पर प्रभुत्व रहा है और उसमें शिया-सुन्नी विभाजन के पीछे वंशवाद बनाम गैर-वंशवाद का संघर्ष रहा है। पर हिन्दू-यहूदी की तुलना में ऐसा प्रभाव कम है। तिब्बती बौद्ध धर्म में तो सर्वोच्च धर्मगुरु दलाई लामा तथ अन्य उच्च गुरु पंचेन लामा का पद जन्म-जन्मांतर तक चलता है। इनके चयन की प्रक्रिया भी आश्चर्यजनक है। दलाई लामा अपने जीवन काल में ही अपने अगले जन्म की भविष्यवाणी करते हैं। वे अनेक घटनाओं, लक्षणों और यहाँ तक कि कुछ विशिष्ट प्रश्नों तक को निर्धारित कर देते हैं, जिनको उनके अगले जन्म में जाना जा सकता है। फिर उनकी मृत्यु के उपरांत लामाओं का एक शिष्टमंडल अनेक स्थानों पर अनेक वर्षों तक खोज के उपरांत पुनर्जन्म प्राप्त दलाई लामा को चुनता है।

कुछ धर्मों में पुरोहित का कार्य व पद पूर्णकालिक होता है, जबकि कुछ में व्यक्ति पौरोहित्य के साथ आजीविका हेतु अन्य कार्य भी अपनाए जा सकते हैं । कई बार पूर्णकालिक पुरोहितों को भी ऐसे कार्य दिए जा सकते हैं, जिन्हें पवित्र माना जाता है, जैसे- शिक्षा, चिकित्सा, ज्योतिष इत्यादि के कार्य। अंशकालिक पुरोहित भी प्रायः ऐसे ही कार्य अपनाते हैं, जो पवित्र माने जाते हों या उनके सम्मान में वृद्धि करते हों । जिन धर्मों ने पुरोहित पद के लिए अविवाहित होना अनिवार्य माना था, उन्होंने प्रायः पूर्णकालिक पौरोहित्य का विधान किया और उनके लिए पृथक् निवास की व्यवस्था की ।

सामान्यतया स्त्रियों को इस पद से वंचित ही रखा गया है, चाहे वह कोई भी धर्म क्यों न हो। वह भिक्षुणी बन सकती है (बौद्ध धर्म), साध्वी बन सकती है (जैन धर्म), देवदासी बन सकती है (हिन्दू धर्म), नन बन सकती है (ईसाई धर्म) और यहाँ तक कि धर्म का आदर्श बन सकती है, किन्तु उसे प्रायः सभी धर्म इस पद से दूर रखते रहे हैं। स्त्रियाँ, जिनके पालन के बल पर ही धर्म चलता रहा है, उन्हें न तो धर्म बनाने का अधिकार मिला और न ही चलाने का। दिगम्बर जैन तो यह मानते रहे हैं कि स्त्री शरीर से मोक्ष मिल ही नहीं सकता। वे उन्नीसवें तीर्थंकर मल्लिबाई को उक्त मान्यता के कारण पुरुष ठहराते हैं। श्वेताम्बर जैन संप्रदाय में भी व्यावहारिक रूप से किसी स्त्री को आचार्य का पद नहीं दिया जाता। ईसाई धर्म में ईश्वर और पादरी के लिए फादर शब्द का प्रयोग है, मदर शब्द का नहीं। ननों में वरिष्ठ को मदर कह अवश्य देते हैं, किन्तु उन्हें कभी फादर का पद या सम्मान नहीं मिल सकता। इस्लाम में स्त्रियों के मस्जिद में नमाज तक की पाबंदी है, उन्हें इमाम या मुफ्ती बनाना तो दूर की बात है। सिख धर्म में भी स्त्री कभी जत्थेदार या ग्रंथी नहीं रही। बौद्ध धर्म जैसे उदार माने जाने वाले धर्म में भी स्त्रियों को दीक्षा बहुत बाद में मिली थी, वह भी बुद्ध के शिष्य आनंद के बुद्ध से बहुत आग्रह के उपरांत। शिंतो, यहूदी इत्यादि धर्म भी इससे बहुत भिन्न नहीं है। हिन्दू में वैसे तो धार्मिक संत के रूप में अनेक स्त्रियों को सम्मान मिला है, किन्तु मन्दिरों, कर्मकाण्डों में पुरुष का प्रभुत्व बना रहा।
पुरोहित की अधिकारिता का प्रश्न जटिल है। वस्तुतः हम धार्मिक प्राधिकार प्राप्त व्यक्ति के चार कार्यक्षेत्र मानते हैं -

प्रथम

-

धर्मस्थल पर पूजा कराने  का कार्य

द्वितीय

-

धर्मविहित संस्कारों और कर्मकाण्डों को कराने  का कार्य

तृतीय

-

धर्मग्रन्थों की व्याख्या करने, धर्मादेश जारी करने एवं धर्मोपदेश के       कार्य

चतुर्थ

-

धर्माचरण की पालना करने, धार्मिक  भावनाओं की रक्षा करने, धर्मपरक कार्यों के लिए  प्रेरित करने आदि के कार्य

इसकी एवज में वह दान, सम्मान तथा अनेक विशेषाधिकार प्राप्त करता है। उपरोक्त कार्य भी कई बार अलग-अलग विभाजित होते हैं सामान्य तौर पर प्रथम कार्य के लिए जो व्यक्ति निर्धारित होता है, वह अन्य तीनों कार्यों पर बड़ी सीमा तक और इसके साथ कुछ अन्य आनुषंगिक कार्यों (शिक्षा, चिकित्सा, ज्योतिष आदि) पर भी पर्याप्त सीमा तक अधिकार रखता है।

पुरोहितों में भी अवर-अपर का भेद सदा रहा है। वैदिक काल में यज्ञ में चार प्रकार के पुरोहित होते थे -

वेद का नाम

पुरोहित का नाम

ऋग्वेद

होता

यजुर्वेद

अध्वर्यु

सामवेद

उद्गाता

चतुर्वेद

ब्रह्मा

पुरोहित शब्द भी वैदिक युग का ही है, जिसका अर्थ है - कल्याण को समक्ष रखने वाला। अब यह विवादित हो सकता है कि इसमें सर्वाधिक कल्याण किसका होता था - जनता का, राजा का या उसका स्वयं का। वैसे धर्मपुरोहितों के ऐसे मिलते-जुलते भेद सभी धर्मों में कायम रहे हैं, जैसे यहूदी धर्म में रब्बाई और कोहेन के, ईसाई धर्म में पोप, कार्डिनल, बिशप और फादर के, इस्लाम धर्म में इमाम और मौलवी के, सिख धर्म में जत्थेदार और ग्रन्थी के, जैन धर्म में सिद्ध आचार्य, उपाध्याय और साधु के, बौद्ध धर्म में दलाई लामा, पंचेन लामा और अन्य लामा जैसे  उर्ध्वाधर सोपानक्रम या क्षैतिज वर्गीकरण मौजूद रहे हैं। कुल मिलाकर इस वर्ग में स्तरभेद भी रहा है और कार्यभेद भी। इस कारण प्रायः पारिभाषिक शब्दावली के रूप में भी भिन्नार्थक शब्द प्रचलित रहे हैं, जैसे -

कर्मकाण्डीय पुरोहित

-

Clergy

आध्यात्मिक मध्यस्थ

-

Shaman

धर्मशास्त्रीय व्याख्याकार

-

Oracle

आदिम धर्मतांत्रिक ओझा

-

Exorcist

प्राचीन भारत में धर्म के क्षेत्र में ब्राह्मण व श्रमण परंपरा के समान ऋषि व मुनि के भी भेद रहे हैं। ऋषि प्रायः वन में आश्रम बनाकर रहते थे और दाढ़ी-जटा बढ़ाकर रखते थे, जबकि मुनि प्रायः समाज में मठ बनाकर रहते थे और दाढ़ी-केश मुंड़ाकर रखते थे। ऋषि प्रायः वनवासी व आहारसंग्राहक होने के कारण आत्मनिर्भर होते थे, इसके विपरीत मुनि भिक्षावृत्ति अपनाने के कारण पूर्णतः समाजोपजीवी होते थे। वैदिक धर्म ऋषिप्रधान था, जबकि जैन-बौद्ध धर्म मुनिप्रधान। वैसे यह भेद भी इतना स्पष्ट नहीं है। ऋषि प्रायः वनवासी होकर भी सामाजिक होते थे और मुनि समाजोपजीवी होकर भी प्रायः एकांतप्रेमी । अंग्रेजी में ऋषि के लिए Hermit व मुनि के लिए Monk शब्द प्रचलित हैं। दोनों के लिए अंग्रेजी  में Sage शब्द  भी प्रचलित है। वैसे तो योगी-त्यागी, यति-ब्रह्मचारी, संन्यासी-भिक्षु, स्वामी-दास, परमहंस-जगद्गुरु, पुजारी-महंत, व्यास-उपदेशक, विरक्त-तांत्रिक जैसे अन्य भेद-प्रभेद भी रहे हैं, किंतु यहॉ उनके विस्तृत वर्णन का औचित्य नहीं है। संत शब्द अंग्रेजी  में भी Saint  के रूप में यथावत् विद्यमान है। उसके लिए इस्लाम में प्रयुक्त फकीर शब्द मूलतः अरबी भाषा के फक्र शब्द से बना है, जिसका अर्थ है- त्यागी या गरीब। हिंदू धर्म में संतों को कुछ संप्रदायों में स्वामी व नाथ भी कहा जाता है । शायद उनका तात्पर्य यह है कि जो अपनी इच्छाओं से परे चला गया या इन्द्रियों का स्वामी हो गया, वह वस्तुतः राजर्षि या अपना स्वामी बन गया।  धर्म-दर्शन में संत-महंत वर्ग के अध्ययन के लिए एक पृथक् विषय संतशास्त्र (Hagiography) का भी प्रचलन है। यहॉ यह अवश्य उल्लेखनीय है कि धर्म ने अपने धर्माधिकारियों के लिए त्यागवाद (Ascetism) का जो आदर्श रखा, वह पायः संतों पर ही चरितार्थ हुआ, धर्म-पुरोहित रूपी महंत वर्ग पर नहीं। वैसे संत-महंत के मध्य स्पष्ट विभाजन भी कठिन है। हर महंत स्वयं संत होने का दावा करता है और प्रायः संत भी महंत बनने की कोशिश करता रहता है ।

धर्म-प्रवर्तक व धर्म-प्राधिकारी में भी बड़ा अंतर होता है। एक दृष्टि से धर्म-प्रवर्तक भी धर्म-प्राधिकारी होता है, किंतु धार्मिक प्राधिकार में धर्म-प्रवर्तक प्रथम स्तर पर आता है, जबकि धर्म-प्राधिकारी द्वितीय व तृतीय स्तर पर। प्रथम स्तर आने वाले को प्रायः दिव्यताधारक (Diviner)  माना जाता है। इन्हें भारत में ऋषि, मुनि एवं गुरु नाम मिला, जबकि यहूदी परंपरा से निकले धर्मों में मसीह और पैगंबर। चीन का जियान और जापान का शेनिन शब्द भी बहुत कुछ यही अर्थ रखता है। यहूदी, इसाई एवं इस्लाम में अन्य अनेक नाम मिले और सबके अलग अलग अर्थ थे-

  • मसीह (Messiah) – इस शब्द का मूल अर्थ है- तैल व जल संस्कारयुक्त व्यक्ति। यह शब्द मूलतः उन सबके लिए प्रयुक्त होता था, जिनका दिव्य संस्कार होता था या जिनमें दिव्य भाव होता था । प्राचीन यहूदी-रोमन परंपरा में राजाओं के दैवीकरण के संस्कार में अभिमंत्रित तैल व जल डाला जाता था, इस कारण इस शब्द का प्रचलन हुआ।
  • पैगंबर (Prophet) – पैगंबर शब्द का मूल अर्थ है- ईश्वरीय पैगाम लाने व देने वाला। अंग्रेजी में इसके लिए जो Prophet शब्द प्रचलित है, उसकी व्युत्पत्ति है- (Pro- "before" + phanai- " to speak) इस प्रकार इसका अर्थ है- समय से पहले बोलनेवाला अर्थात् भविष्यद्रष्टा। अरबी भाषा का नबी शब्द भी इसी अर्थ का वाचक है।
  • द्रष्टा  (Seer) – इसका भी अर्थ है- दूरद्रष्टा या भविष्यद्रष्टा।
  • उद्धारक  (Redeemer) –  इसका अर्थ है- भक्तों, अनुयायियों या समस्त मानवों का तारक या उद्धारक होना । यह कार्य वह पापियों कां सुधार कर भी कर सकता है और मारकर भी। एक उद्धारक केवल प्रवचन या उपदेश से भी प्रभावित कर सकता है और स्वयं प्राण त्यागकर भी। यह हिंदू धर्म के अवतारवाद से मिलती-जुलती अवधरणा है ।

जहाँ तक धर्म के विशिष्ट विधि-विधान और बाह्य प्रतीक-परिधान का प्रश्न है, प्रत्येक धर्म में इसके अपने मानक मिल जाएँगे। धर्म कहीं आध्यात्मिक तो होता है, प्रदर्शन पूर्ण भी हो जाता है। ऐसा न होता तो धार्मिकता और आध्यात्मिकता में कोई फर्क ही नहीं होता। यह आडम्बरपरकता भी जनसामान्य की बजाय धर्माधिकारियों में अधिक दिखती है। वे स्वयं को अतिमानव तो नहीं समझते, किन्तु विशिष्ट मानव तो समझते ही हैं। उनका विशिष्ट होना प्रायः उनके विशिष्ट दिखने पर निर्भर करता है। धर्म प्रायः दर्शन से अधिक प्रदर्शन पर आधारित होता रहा है ।

यह विशिष्टता धर्म के उपासना स्थलों के वास्तुशिल्प में भी परिलक्षित होती है और धर्म पुरोहित के परिधान और प्रतीक में भी । वेशभूषा में वस्त्र के रंग ही नहीं, प्रायः शैली तथा स्वरूप को भी निर्धारित कर दिया जाता है । कोई श्वेत वसन होगा, तो कोई काला वसन धारी। कोई लाल वस्त्र धारण करता है, तो कोई गैरिक । बालों में भी कोई मुण्डित हो सकता है, तो कोई जटाधारी या फिर कोई केवल शिखाधारी । कोई तिलक लगाता है, तो कोई टोपी । सबके अपने-अपने विधान हैं। पुरोहितों के वर्गभेद के साथ ये भिन्न-भिन्न भी हो सकते हैं ।

इसके अतिरिक्त पुरोहितों के स्नान-ध्यान जैसे नित्य-नैमित्तिक कर्मों का भी निश्चित विधान होता है । उसकी उपासना में प्रायः शास्त्रपरकता, परम्परापरकता तथा कर्मकाण्डपरकता निहित होती है।

धर्म के लिए एक विशेषज्ञ तथा ईश्वर या स्वर्ग के लिए एक मध्यस्थ तलाशता रहा है। जनमानस भी सरल और स्वयं उपासना से बच कर जटिल और अन्य द्वारा कारित की जा सकने वाली उपासना पर अधिक विश्वास करता है। इस प्रकार पुरोहित वर्ग का उद्भव न केवल धर्म की जटिलताओं से होता है, बल्कि जनसामान्य द्वारा उपासनापरक-आकांक्षापरक सहूलियतों से भी होता है ।

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